डीपीसी विधि महाविद्यालय में जगतगुरु शंकराचार्य जी को दी गई श्रद्धांजलि
 
गौरतलब है कि रविवार की शाम को जैसे ही द्विपीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज के ब्रह्मलीन का समाचार सिवनी जिले में फैला वैसे ही शोक की लहर फैल गई। आपका जिले से पुराना नाता था। महाराजश्री के ब्रह्मलीन का समाचार के बाद जिले के कई स्थानों पर श्रद्धांजलि देने का क्रम शुरू हो गया।
विधि महाविद्यालय में सोमवार को महाराज श्री को श्रद्धांजलि दी गई इस अवसर पर प्राचार्य श्री आरके चतुर्वेदी, अन्नपूर्णा मिश्रा , अखिलेश यादव , दीपक पटले, अमन चौबे, निशांत दुबे, देवी सिंग निर्मलकर, छात्रों में अभिनय जैन, वासु,परीक्षित, निश्चय, प्रतिभा ठाकरे,सुषमा, सती वंदना, प्रज्ञा उईके सहित अन्य उपस्थित रहे।
गौरतलब है कि स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज का जन्म सिवनी जिले के ग्राम देवरी में 1924 को हुआ था आपके पिता धनपति उपाध्याय और मां गिरिजा देवी हैं माता-पिता ने आपका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था। 9 वर्ष की उम्र में आपने घर छोड़कर धर्म यात्राएं प्रारंभ कर दी थी आप स्वतंत्रता संग्राम मैं भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं 19 वर्ष की उम्र में आप क्रांतिकारी साधु के रूप में प्रसिद्ध हुए आपने वाराणसी की जेल में 9 और मध्य प्रदेश की जेल में 6 महीने की सजा काटी है आप करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी रह चुके हैं वर्ष 1950 में आप दंडी संन्यासी बनाए गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि आपको मिली वर्ष 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से आपने संन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।
रविवार 11 सितंबर को आपने झोतेश्वर आश्रम में अंतिम सांस ली
 शंकराचार्य आम तौर पर अद्वैत परम्परा के मठों के मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है। शंकराचार्य हिन्दू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है जो कि बौद्ध धर्म में दलाईलामा एवं ईसाई धर्म में पोप के समकक्ष है। इस पद की परम्परा आदि गुरु शंकराचार्य ने आरम्भ की। यह उपाधि आदि शंकराचार्य, जो कि एक हिन्दू दार्शनिक एवं धर्मगुरु थे एवं जिन्हें हिन्दुत्व के सबसे महान प्रतिनिधियों में से एक के तौर पर जाना जाता है, के नाम पर है। उन्हें जगद्गुरु के तौर पर सम्मान प्राप्त है एक उपाधि जो कि पहले केवल भगवान कृष्ण को ही प्राप्त थी। उन्होंने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा हेतु भारत के चार क्षेत्रों में चार मठ स्थापित किये तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उन पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। तबसे इन चारों मठों में शंकराचार्य पद की परम्परा चली आ रही है। यह पद अत्यंत गौरवमयी माना जाता है।
शंकराचार्य आम तौर पर अद्वैत परम्परा के मठों के मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है। शंकराचार्य हिन्दू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है जो कि बौद्ध धर्म में दलाईलामा एवं ईसाई धर्म में पोप के समकक्ष है। इस पद की परम्परा आदि गुरु शंकराचार्य ने आरम्भ की। यह उपाधि आदि शंकराचार्य, जो कि एक हिन्दू दार्शनिक एवं धर्मगुरु थे एवं जिन्हें हिन्दुत्व के सबसे महान प्रतिनिधियों में से एक के तौर पर जाना जाता है, के नाम पर है। उन्हें जगद्गुरु के तौर पर सम्मान प्राप्त है एक उपाधि जो कि पहले केवल भगवान कृष्ण को ही प्राप्त थी। उन्होंने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा हेतु भारत के चार क्षेत्रों में चार मठ स्थापित किये तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उन पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। तबसे इन चारों मठों में शंकराचार्य पद की परम्परा चली आ रही है। यह पद अत्यंत गौरवमयी माना जाता है।
चार मठ निम्नलिखित हैं:
    उत्तराम्नाय मठ या उत्तर मठ, ज्योतिर्मठ जो कि जोशीमठ में स्थित है।
    पूर्वाम्नाय मठ या पूर्वी मठ, गोवर्धन मठ जो कि पुरी में स्थित है।
    दक्षिणाम्नाय मठ या दक्षिणी मठ, शृंगेरी शारदा पीठ जो कि शृंगेरी में स्थित है।
    पश्चिमाम्नाय मठ या पश्चिमी मठ, द्वारिका पीठ जो कि द्वारिका में स्थित है।
इन चार मठों के अतिरिक्त भी भारत में कई अन्य जगह शंकराचार्य पद लगाने वाले मठ मिलते हैं। यह इस प्रकार हुआ कि कुछ शंकराचार्यों के शिष्यों ने अपने मठ स्थापित कर लिये एवं अपने नाम के आगे भी शंकराचार्य उपाधि लगाने लगे। परन्तु असली शंकराचार्य उपरोक्त चारों मठों पर आसीन को ही माना जाता है। 
 
 
							     
							     
							     
							    
 
 
 
 
 
 
 
 
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