ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
इंद्रियसंयम सुख-शांति का ठोस आधार
आत्मसंयम स्वर्ग का द्वार है। व्यक्ति हो या परिवार अथवा समाज, संयम ही सुख एवं शांति का आधार है। जीवन में सुख-चैन के अभाव का मुख्य कारण असंयम ही है। समाज में फैली हिंसा, अपराध, बलात्कार, रोग, शोक एवं दुःख का मूल कारण आत्मसंयम की कमी ही है।
वस्तुतः आत्मसंयम पुण्यार्जन की यात्रा की पहली सीढ़ी है और इस यात्रा में इंद्रियसंयम सर्वप्रथम आता है, जिसकी प्रायः धज्जियाँ उड़ती रहती हैं। इसका प्रमुख कारण रहता है प्रलोभन का मोहक एवं मायावी आकर्षण, जो पहले व्यक्ति को लुभाता है, आकर्षित करता है, फिर अपनाने पर नागपाश बनकर जकड़ लेता है और पूरा सारतत्त्व निचोड़कर ही दम लेता है। प्रलोभन का मोहक आकर्षण नाना रूपों में साधक को ठगने एवं पथभ्रष्ट करने के लिए आता है। जीवन में आने वाले प्रलोभनों की मायावी सृष्टि इतनी मनमोहक एवं लुभावनी होती है कि क्षण भर के लिए व्यक्ति की विवेक- बुद्धि पंगु हो जाती है और इनके पुष्पित एवं मादक प्रहार से चित्त विक्षिप्त हो उठता है और व्यक्ति अदूरदर्शी निर्णय ले बैठता है। सारी नैतिकता, व्रत-संकल्प, नेक इरादे, पावन भाव आदि क्षणभंगुर सुख के सामने घुटने टेक देते हैं। अंततः इससे उत्पन्न होने वाली हानि, कष्ट, पाप, संताप, अपमान एवं अप्रतिष्ठा से व्यक्ति दग्ध हो उठता है। यदि कभी व्यक्ति इनके दुष्परिणामों को देखते हुए कुछ समय के लिए सँभल भी जाए तब भी प्रलोभन अपना दूसरा रूप धरकर पुनः व्यक्ति को अपने नागपाश में कस लेता है और उसे साधना- पथ से स्खलित कर देता है।सुख की खोज में भटक रहे इंद्रियलोलुप लोग एवं नैतिक दृष्टि से कमजोर चरित्र वाले व्यक्ति जहाँ आसानी से प्रलोभन के शिकार हो जाते हैं तो वहीं साधकों को भी प्रारंभिक अवस्था में दीर्घकाल तक प्रलोभनों की चुनौती का सामना करना पड़ता है। यहाँ तक कि सात्त्विक बुद्धि वाले तक दूषित वातावरण के प्रभाव में प्रलोभनों के शिकंजे में कसते देखे जाते हैं।अविद्या, क्षणिक भावावेश एवं अदूरदर्शिता के कारण प्रलोभन में रमणीयता का मिथ्या बोध होता है। हालाँकि चित्त में जड़ जमाए कुसंस्कार ही इसमें मुख्य कारण होते हैं, जिनके कारण व्यक्ति बाहर के प्रलोभनों के लोभ को संवरण नहीं कर पाता। मनोवैज्ञानिक रूप में इसके पीछे दो तत्त्व सक्रिय होते हैं, जो हैं- उत्सुकता और दूरी। दूरी के कारण अनावश्यक आकर्षण पैदा होता है और विषयासक्त उत्सुकतावश इसमें हाथ डाल बैठता है। ईसाई धर्म में आदिपुरुष आदम या एडम के स्वर्ग से पतित होने का मुख्य कारण यही उत्सुकता का भाव था, जब वे पाप फल को खाने के लिए उत्सुकतावश प्रवृत्त हुए और स्वर्ग से नीचे आ गिरे। यही उत्सुकता एवं दूरी संसार में रहते हुए पाप-प्रलोभनों के आकर्षण में व्यक्ति के लिप्त होने का कारण भी बनते हैं।वास्तव में रमणीयता किसी बाह्य जगत की वस्तु में नहीं होती, बल्कि हमारी अपनी कल्पना और उत्सुकता की भावनाओं की प्रतिच्छाया मात्र होती है। मन की कोई गुप्त- अतृप्त इच्छा प्रलोभन का रूप धारण कर लेती है और विवेक का नियंत्रण ढीला पड़ते ही मन बहकने लगता है।तम-रज गुण, इंद्रियलोलुपता, बीमारी, प्रमाद जैसे आवरण के कारण बुद्धि एवं समझ पंगु हो जाते हैं और व्यक्ति को पतन की ओर ले जाते हैं। अतः मन पर सतर्कता के साथ कड़ी निगरानी रखने की आवश्यकता रहती है कि कहीं यह प्रलोभनों के सामने बहक व भटक न जाए।जैसे युद्ध में प्रतिपक्षी की चाल पर पैनी निगाह रखी जाती है, वैसे ही मनरूपी चंचल शत्रु पर तीव्र दृष्टि रखनी पड़ती है और विवेक को सदा जाग्रत रखना होता है। जहाँ मन इंद्रियजनित प्रलोभन की ओर खिंचने लगे तो उसे तत्काल विपरीत कार्य में लगाकर इसकी उच्छृंखलता को रोक देना जरूरी होता है। निस्संदेह हमारा अनगढ़ मन हमारा बड़ा बलवान शत्रु है। वासना और कुविचार की माया इस पर बड़ी शीघ्रता से हावी होती है एवं बड़े-बड़े संयमी ऐसे में स्वयं पर काबू खो बैठते हैं और पथभ्रष्ट होते रहते हैं।
प श्री राम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति : जुलाई, २०२१ से
संवाददाता : लक्ष्मण (बनासकांठा )
COMMENTS