सोनभद्र के स्वाधीनता आंदोलन में रामलीला का योगदान
-रामलीला मंचन के माध्यम से क्रांतिकारी गिरफ्तारी से बच जाते थे।
-गीतों व संवादों के माध्यम से बनाते थे आंदोलन की रणनीति।
-रामलीला के पात्र के रूप में नहीं पहचान पाते थे क्रांतिकारियों को अंग्रेज अधिकारी।
-स्वाधीनता के पूर्व कंपनी बाग में होती थी रामलीला।
-स्थानीय लोग रामलीला के पात्रों की निभाते थे भूमिका।
सोनभद्र-जनपद मुख्यालय रॉबर्ट्सगंज प्रतिवर्ष रामलीला मैदान में होने वाले रामलीला का इतिहास लगभग 18 दशक प्राचीन है। रामलीला का मंचन स्थानीय लोगों के मनोरंजन, शिक्षा का साधन ही नहीं बल्कि पराधीनता के काल में नगर सहित जनपद सोनभद्र के क्रांतिकारी, देशभक्त, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संरक्षण एवं रामलीला में गाये वाले देशभक्ति गीत रामलीला देखने वाले श्रोताओं में देश पर मर मिटने का जज्बा जागते थे। और रामलीला मंच से गीतों एवं संवादों के माध्यम से क्रांतिकारी क्रांति का संदेश आंदोलन की रणनीति का संकेत देते थे।
रामायण कलर मैपिंग योजना के डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डिनेटर एवं संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश के विशेषज्ञ दीपक कुमार केसरवानी के अनुसार-सन 1830 में मिर्जापुर जनपद की स्थापना के पश्चात इस क्षेत्र में जनसंख्या को मद्दे नजर रखते हुए ब्रिटिश प्रशासन की हुकूमत को कायम करने के लिए इस जंगली क्षेत्र में कुसाचा (रॉबर्ट्सगंज) एवं दुद्धी तहसीलकी स्थापना हुई। जनता अंग्रेज सरकार एवं उनके कारकूनो, ठेकेदारों, नुमाइदो के प्रताड़ना से त्रस्त थी, लेकिन सन 1921 में महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन ने स्थानीय लोगों में ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेने के लिए कमर कस लिया था। क्रांतिकारियों ने आंदोलन के प्रचार-प्रचार का माध्यम रामलीला को बनाया। उस समय रामलीला का मंचन स्थानीय युवाओं द्वारा किया जाता था और इसमें रॉबर्ट्सगंज नगर के रईस, व्यापारी, क्रांतिकारी, देशभक्त, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी,शायर अभिनय किया करते थे।
रामलीला के पात्रों में टाउन एरिया के प्रथम अध्यक्ष बद्री नारायण केसरवानी, द्वितीय अध्यक्ष बलराम दास केसरवानी, शायर विश्वनाथ प्रसाद "खादिम"(बी० एन० बाबू) मास्टर विश्वनाथ प्रसाद आदि लोग शामिल थे।
क्रांतिकारी बलराम दास केसरवानी के नेतृत्व में रॉबर्ट्सगंज तहसील क्षेत्र में उनके सहयोगी साथी चंद्रशेखर वैद्य, अली हुसैन उर्फ बेचू, मोहनलाल गुप्ता, शिव शंकर प्रसाद केसरवानी आदि युवा स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्गत होने वाले धरना, प्रदर्शन, पिकेटिंग में भाग लेते थे और स्थानीय पुलिस से बचने के लिए वह रामलीला के भीड़ में छुपकर बैठते थे या रामलीला के पात्रों का अभिनय करते थे इन क्रांतिकारियों, देशभक्तो पुलिस का मुखबिर, स्थानीय दरोगा पुरुषोत्तम सिंह एवं उनके हमराही नहीं पहचान पाते थे, रामलीला मंचन क्रांतिकारियों को सुरक्षा कवच प्रदान करता था।
वरिष्ठ साहित्यकार अजय शेखर के अनुसार-"हम लोगों के बचपन में रामलीला का आयोजन स्थानीय स्तर पर मल्हर गुरु की कमेटी द्वारा आयोजित किया जाता था, रामलीला, नाट्य मंचन में पात्रों की भूमिका मैं और मेरे मित्र गोपीबल्लभ दीक्षित, कृष्ण कुमार दीक्षित,भीखराज केडिया, विश्वनाथ प्रसाद अग्रहरी, महेंद्र प्रताप सिंह आदि युवा निभाते थे, नगर की समृद्ध सांस्कृतिक, साहित्यिक रामलीला की परंपरा रही है।"
लोक साहित्यकार डॉ अर्जुन दास केसरी का मानना है कि-"रामलीला के मंचन में आज भी लोक परंपराओं का पालन होता है, पात्रों के वेशभूषा, संवाद, मंच की साज- सज्जा, भाषा आदि प्राचीन है, रामलीला के आयोजन में आधुनिकता का पुट देखने को मिलता है।"
साहित्यकार प्रतिभा देवी के अनुसार-"रामलीला में हमारी प्राचीन राम कथा सदियों से सुरक्षित है और दर्शकों को प्रतिवर्ष रामायण के पात्र राम कथा का रसपान करा कर राम कथा की पुनरावृत्ति करते हैं।"
जनपद मुख्यालय रॉबर्ट्सगंज मैं रामलीला की परंपरा सांस्कृतिक संक्रमण के बावजूद अभी तक कायम है श्री रामलीला समिति के अध्यक्ष पवन कुमार जैन के अनुसार-" आज के आधुनिक युग में भले हम इंटरनेट तक पहुंच गए हैं, लेकिन रामलीला का कोई जोड़ नहीं है, आज भी रामलीला पंडाल में लोग श्रद्धा, विश्वास, उत्साह, उमंग के साथ महिलाएं बच्चे, बूढ़े, जवान भूमि पर बैठकर रामलीला का आनंद उठते हैं, यद्यपि रामलीला समिति द्वारा कुर्सी इत्यादि की व्यवस्था की गई है लेकिन पहले आओ, आगे बैठो वाले तर्ज पर लोग आगे बैठकर लीला का आनंद लेते हैं।
अदलगंज बाजार से मुखिया भूरालाल द्वारा मिर्जापुर के तर्ज पर प्रारंभ की गई रामलीला बिना किसी परिवर्तन के आजनिरंतर कायम है और भविष्य में भी रहेगी।
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