आजकल भगवान के दर पर जब भक्त बहुत बढ़ने लग जाते हैं तबकहीं-कहीं तो स्थिति यहां तक बन जाती है कि लाखों भक्तों का जनसमूहएकत्रित हो जाता है। लम्बी-लम्बी कतारें लग जाती हैं और कई-कई घंटों के उपरांत भक्त का अपने आराध्य के दर्शन या वंदन करने का अवसर आ पाता है। कभी सोचा है कि वाकई में सच्चा भक्त है कौन? मंदिर या तीर्थ पर जाकर भक्ति करने वाला ही भक्त नहीं होता वरन् सच्चा भक्त वह है जो सप्त व्यसनों से दूर है। हिंसा के कार्यों से स्वयं परे है और दूसरों को भी अहिंसा का पाठ पढ़ाता है।
जिसके अंतर में दया व करुणा नहीं, वह कभी सच्चा भक्त नहीं हो सकता।
दया तो धर्म का मूल है और जब इससे व्यक्ति की दूरी है, फिर वहभगवान का भक्त कभी नहीं हो सकता। सच्चा भक्त ही भगवान को जान सकता है और पुरुषार्थ करे तो वह स्वयंएक दिन भगवान बन जाता है।उपरोक्त
मंगल उद्गार प्रातः आचार्य श्री आर्जवसागरजी महाराज नें सम्मेदशिखर मण्डल
विधान के दौरान व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि हमें दूसरों की देखा-देखी में
केवल नाम का भक्त नहीं बनना वरन् सदाचार के साथ धर्म
का अनुसरण करते हुए सच्चा भक्त बनना होगा।धर्म का मतलब ही पाप कार्यों से
स्वयं को दूर रखना व अच्छी बातों को धारण करना है। यदि व्यक्ति में कोई
सांसारिक व्यसन हैं,हिंसा के कार्य करता है, अपने सिद्धांतों की परवाह नहीं
करता, वह कभी धर्मी नहीं हो सकता। इसी तरह जैन का अर्थ है जिन्होंने अपनी
इन्द्रियों को जीत लिया और हिंसा के कार्यों से दूर हो गए जिनेन्द्र
भक्ति करने से ऐसे हीश्रावकों (भक्त) को अक्षय पुण्य की प्राप्ति हो पाती है। जो चमड़े के जूतेपहनता
हो, रात्रि को भी खाता हो, नशा व मांसाहार करता हो, भ्रूण हत्या का पाप
करवाता है, ऐसा व्यक्ति धर्मात्मा नहीं हो सकता। फैशन व व्यशन में लिप्त
रहने वाला व्यक्ति भगवान की भक्ति में लीन नहीं हो सकता। ध्यान रखना धर्म; मंदिर या तीर्थ तक ही नहीं है बल्कि वह धर्म अपने घर, परिवार,
दुकान,फैक्ट्री, ऑफिस और बाजार में भी साथ रहना चाहिए। तभी सच्चे भक्त बन पाओगे।
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